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लोग बाहर से खुश लेकिन अंदर से टूटे हुए क्यों हैं ?

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लोग बाहर से खुश लेकिन अंदर से टूटे हुए क्यों हैं ?

Illustration of a happy face on the outside, but a cracked and crying face within, showing hidden emotional pain.

जीवन उतार-चढ़ावों का सिलसिला है। कुछ भी हमेशा एक जैसा नहीं रहता। जीवन समय के साथ लगातार बदलता रहता है लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि समय आपके सारे घाव भर देगा। नहीं, ऐसा नहीं होगा। आपके जीवन को बेहतर बनाने वाली एकमात्र चीज़ आपके कर्म हैं।

हालाँकि आज का इंसान पहले से ज़्यादा connected है, लेकिन अंदर से पहले से कहीं ज़्यादा अकेला और अस्थिर। सोशल मीडिया पर हँसती-खिलखिलाती तस्वीरें, motivational quotes और success stories की भरमार है, फिर भी भीतर एक खालीपन, असंतोष और थकावट बनी हुई है। यह लेख इसी मानसिक स्थिति का गहराई से विश्लेषण करता है। यहाँ हम जानेंगे की सच में खुश रहने और समाज को दिखने के लिए खुद को बनावटी खुश रखने में क्या फर्क होता है और इस समस्या से कैसे निपटा जा सकता है | 

1. सच में खुश हैं या बस दिखावा कर रहे हैं ?

सोशल मीडिया ने हमें एक ऐसा मंच दिया है जहाँ हम अपनी ज़िंदगी का सिर्फ सबसे अच्छा हिस्सा दिखाते हैं। खुशियां, त्योहार,पार्टी, यात्रा की हंसती मुस्कुराती तस्वीरें, किसी बड़े आदमी से मुलाक़ात आदि आदि | हम अपने दुःख, तनाव या असफलताओं को छुपाते हैं क्योंकि डर है कि कहीं लोग हमें judge न करें। इससे हमारे अंदर एक internal conflict पैदा होता है — बाहर से “सब ठीक है”, लेकिन अंदर से दर्द और खालीपन।
सवाल उठता है कि आखिर लोग सोशल मीडिया पर दिखावा क्यों करते हैं?

1. Validation की भूख

 “लोग क्या सोचेंगे?” — ये सवाल आज लोगों की ज़िंदगी चलाता है।
लाइक्स, कमेंट्स और शेयर अब एक डिजिटल ताली बन चुके हैं, जिससे लोग अपनी worth नापते हैं। जो सम्मान वास्तव में उन्होंने नहीं कमाया उसे सोशल मीडिया से प्राप्त करने की कोशिश करते हैं | 

2. Fear of Missing Out (FOMO)

अजीब बात है ! जब सब लोग बाहर घूम रहे हैं, खुश हैं, रिश्ते में हैं, पार्टी कर रहे हैं —
तब एक सामान्य इंसान को लगता है कि वो पीछे छूट रहा है। उसे इन सबसे परेशानी महसूस होती है,
तो वो भी दिखावे से खुद को उस ‘परफेक्ट वर्ल्ड’ में शामिल करता है।

3. सच्चाई से भागने की आदत

हांलाकि कई लोग अपनी जिंदगी में दुख, खालीपन या संघर्ष से जूझ रहे होते हैं, परेशान और निराश होते हैं 
लेकिन सोशल मीडिया पर एक परफेक्ट झूठी कहानी बनाकर खुद को भी धोखा देते हैं और अपने साथ जुड़े मित्रों को भी | सच्चाई को स्वीकार नहीं करना चाहते| 

4. Identity Crisis

अधिकांशतः जब लोगों की असली पहचान गुम हो जाती है, तो लोग एक “डिजिटल पहचान” बना लेते हैं —
जो दिखने में चमकदार होती है, झूठा आवरण ओढ़े होती है लेकिन अंदर से बिल्कुल खोखली।

5. Societal Pressure

अगर शादी हुई है तो शादी के बाद honeymoon की फोटो डालना “ज़रूरी” है,
जन्मदिन पर महंगे केक काटना और गिफ्ट दिखाना “जरूरी” है — ऊपर से जुमला ये की लोग इंतज़ार कर रहे होंगे | 
वास्तव में ये ज़रूरत नहीं, ये समाज द्वारा बनाया गया दिखावे का ढांचा है।

6. Influencer Culture का असर

सच है कि आज हर कोई influencer बनना चाहता है — अपना प्रभाव बढ़ने का ये एक माधयम बन जाता है 
इसलिए वो लाइफ को aesthetic, dreamy और non-stop exciting दिखाता है, भले ही वो ऐसा हो न हो।

Behavioral psychology कहती है कि जब हम अपनी सच्ची भावनाओं को suppress करते हैं, तो long-term में anxiety और identity crisis बढ़ते हैं।

एक अध्ययन के अनुसार, 73% युवा मानते हैं कि वे सोशल मीडिया पर खुद को बेहतर दिखाने के लिए झूठी छवि बनाते हैं। इससे धीरे-धीरे self-worth पर असर पड़ता है और उन्हें लगता है कि वे वास्तविक जीवन में पर्याप्त नहीं हैं। उनमें कुछ तो अधूरापन है, कमी है | 

गुप्त दुश्मन: ऊर्जा चुराने वाले छोटे-छोटे तनाव

इसका असर क्या होता है?
-खुद से दूरी बढ़ जाती है
-anxiety और comparison बढ़ती है
-deep loneliness शुरू हो जाती है
-और एक समय बाद, अवसाद की स्थिति तक पहुँच सकते है

2. Emotional Burnout: जब दिमाग थक जाता है

यह एक मानसिक और भावनात्मक थकावट की स्थिति है, जब कोई व्यक्ति लंबे समय तक तनाव, दबाव या जिम्मेदारियों के बोझ तले अपनी भावनात्मक ऊर्जा खो देता है। इसमें इंसान खुद को खाली, थका हुआ, और emotionally drained महसूस करता है — जैसे अब और कुछ संभालने की ताकत ही नहीं बची।

Emotional burnout का मतलब है — लगातार मानसिक थकान, motivation की कमी और भावनात्मक सुन्नता। यह स्थिति धीरे-धीरे शरीर पर भी असर डालती है और दिमाग पर तो डालती ही है | 

Emotional Burnout के लक्षण:


1. थकावट (Exhaustion): हमेशा थका हुआ महसूस करना — भले ही आप सो रहे हों, छोटी-छोटी चीज़ें भी भारी लगने लगती हैं

2. Disconnect होना: अपने काम, रिश्तों या जीवन से कटा-कटा महसूस करना, हर चीज़ में interest खत्म हो जाना

3. Negative भावनाएँ: चिड़चिड़ापन, निराशा, और low mood, “ये मेरे बस की बात नहीं” जैसा महसूस होना

4. Self-doubt: “मैं ठीक से कुछ कर ही नहीं पा रहा”, अपनी क्षमताओं पर भरोसा ना रहना

5. शारीरिक असर: सिरदर्द, नींद की दिक्कत, अपच, हार्टबीट बढ़ना, अधिक पसीना आना 

6. Social withdrawal (लोगों से दूर भागना): ऐसी स्थिति होने पर किसी से मिलना जुलना, बातें करना या कहीं आना-जाना अच्छा नहीं लगता| व्यक्ति खुद को एक दायरे में समेट लेता है और समाज से कट जाता है |

https://visioncounselling.com.au/emotional-burnout-signs-recovery-and-prevention/

मुख्य कारण:

-लगातार Overwork करना बिना ब्रेक लिए
-Emotional labor: दूसरों को खुश करने की कोशिश करते-करते खुद को भूल जाना
-Unrealistic expectations: खुद से या दूसरों से ज़्यादा उम्मीदें रखना
-Lack of support: अकेले सब कुछ संभालने की कोशिश
-Toxic माहौल: चाहे वो ऑफिस हो, रिश्ता हो या घर

-No emotional outlet (किसी से खुल कर बात न कर पाना)

एक उदाहरण:
एक working woman जो ऑफिस में काम के प्रेशर, घर की ज़िम्मेदारियाँ और बच्चों की देखभाल में 24×7 जुटी रहती है, बिना किसी emotional support के — धीरे-धीरे वो खुद को थका हुआ, बेकार और disconnected महसूस करने लगती है। यही emotional burnout है।

 

3. Healthy Positivity vs Toxic Positivity

Toxic Positivity बहुत ज़्यादा जहरीली होती है क्योंकि यह मुश्किल समय से गुज़र रहे लोगों को नुकसान पहुँचा सकती है। वास्तविक मानवीय भावनाओं को साझा करने और बिना शर्त समर्थन पाने में सक्षम होने के बजाय, जो लोग जहरीली सकारात्मकता का सामना करते हैं, वे पाते हैं कि उनकी भावनाओं को खारिज कर दिया जाता है, अनदेखा किया जाता है, या पूरी तरह से अमान्य कर दिया जाता है।


-समस्याओं का सामना करने के बजाय उन्हें नजरअंदाज करना
-अपनी सच्ची भावनाओं को सामाजिक रूप से स्वीकार्य लगने वाले अच्छे उद्धरणों के पीछे छिपाना
-अन्य लोगों की भावनाओं को कमतर आंकना क्योंकि वे आपको असहज बनाती हैं
-जब अन्य लोगों का दृष्टिकोण सकारात्मक न हो तो उन्हें शर्मिंदा करना

यह जानना भी उतना ही महत्वपूर्ण है कि कोई और व्यक्ति आपके साथ कब विषैले ढंग से सकारात्मक व्यवहार कर रहा है, जो संभावित रूप से आपके मानसिक स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचा सकता है।

माफ़ करना और भूल जाना – आसान क्यों नहीं होता?

स्वस्थ सकारात्मक व्यवहार (Healthy positivity)

-जब आप दुखी होने को भी स्वीकार करते हैं
-Real emotions को space देते हैं
-Hopeful रहते हुए practical steps लेते हैं

विषैला सकारात्मक व्यवहार (Toxic positivity)

-“हमेशा खुश रहो” का ज़ोर
-दुःख, गुस्से या डर को दबाना
-अपने या दूसरों के दर्द को नज़रअंदाज़ करना

हांलाकि Toxic positivity short term में अच्छा लग सकता है, लेकिन long term में यह emotional disconnect पैदा करता है।
Real-life Example: किसी दोस्त का कोई नुकसान हो जाए और हम सिर्फ कहें, “सब अच्छा होगा, मुस्कुराओ ना,” तो वह व्यक्ति और ज़्यादा अकेलापन महसूस कर सकता है। जबकि ज़रूरत है उसकी भावनाओं को validate करने की।

4. Overthinking और Identity Crisis का जाल

Anxiety और Overthinking आज के समय में सबसे आम मानसिक समस्याएं बन चुकी हैं, यह हम सबको पता है | 

  • Forbes के अनुसार, 25-35 वर्ष के 73% लोग, तथा 45 से 55 वर्ष के 52% लोग अत्यधिक सोचते हैं 
  • लंबे समय तक Overthinking करने से अनेक तरह की शारीरिक और मानसिक दिक्कतें हो सकती हैं।
  •  एक स्टडी के अनुसार, देश में 70% युवा रोज़ाना Overthinking का शिकार होते हैं।

क्या Anxiety और Overthinking से परेशान हैं ? 10 वैज्ञानिक टिप्स

Identity crisis तब होती है जब कोई व्यक्ति ये समझ नहीं पाता कि वो वास्तव में कौन है, उसके जीवन का उद्देश्य क्या है, या उसे क्या करना चाहिए। ये मानसिक उलझन तब पैदा होती है जब व्यक्ति अपने मूल विचारों, मान्यताओं, लक्ष्यों या रिश्तों को लेकर असमंजस में होता है।

Identity Crisis होने के मुख्य कारण:


1. बचपन या किशोरावस्था में दबाव: माता-पिता या समाज की उम्मीदों के मुताबिक खुद को ढालना पड़ता है, खुद की पसंद और इच्छाओं को दबाना
2. करियर को लेकर भ्रम: “क्या मैं सही फील्ड में हूँ?” “मुझे क्या करना पसंद है?” यह सवाल बार-बार आना
3. बार-बार तुलना करना: सोशल मीडिया या दूसरों की सफलता देखकर अपनी पहचान पर संदेह करना
4. रिश्तों में टूटन: लंबे रिश्ते या शादी का टूटना, जिससे व्यक्ति अपनी भूमिका खो देता है
5. ट्रॉमा या बड़ा जीवन बदलाव: किसी की मृत्यु, नौकरी छूटना, या शहर बदलना — ये सब identity पर असर डालते हैं
6. Values में टकराव: जब आपके निजी मूल्य आपके काम, परिवार या समाज से मेल नहीं खाते

लक्षण (Symptoms):

-“मैं कौन हूँ?” ये सवाल अक्सर आना
-बार-बार निर्णय बदलना
-आत्म-संदेह और खुद से असंतोष
-अकेलापन और खालीपन महसूस करना
-दूसरों से अपनी पहचान validate करवाना
उदाहरण:
एक युवा जिसने इंजीनियरिंग की है लेकिन अंदर से उसे संगीत में रुचि है, जब वह जॉब में satisfaction नहीं पाता, तो उसे लगने लगता है कि उसकी पहचान क्या है — एक इंजीनियर या कलाकार ? उसे क्या करना चाहिए  ? ये द्वंद्व ही identity crisis है।

जब हमारा दिमाग हर चीज़ पर ज़्यादा सोचने लगे — “मैं दूसरों जैसा क्यों नहीं हूँ?”, “क्या मैं सफल हूँ?”, “मुझमें क्या कमी है?” — तब हम खुद से दूर होते जाते हैं। Overthinking धीरे-धीरे self-doubt और anxiety में बदल जाता है। हम अपनी असली पहचान (identity) खोने लगते हैं क्योंकि हम दूसरों से validation चाहते हैं।

एक बात और है- ज़रूरत से ज़्यादा सोचने वाले लोगों में decision-making क्षमता भी कमजोर हो जाती है क्योंकि वे हर फैसले पर overanalyze करते हैं।
Case Example: कॉलेज के छात्रों में यह स्थिति आम है, जहां वे करियर के हर विकल्प को लेकर confused रहते हैं, और अंदर ही अंदर एक असंतोष और डर बैठा होता है।

5. इस दौर में असली खुशी कहाँ से मिलेगी?

देखा जाये तो आज के समय में सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण प्रश्न यही है कि असली ख़ुशी कहाँ और कैसे मिलेगी | लेकिन उससे पहले हमारे लिए ये जानना जरुरी हो जाता है कि हमारी असली ख़ुशी गायब कैसे हो जाती है | ये ख़ुशी शब्द में असली और नकली कहाँ से आ गया ?

आइये इनके कारणों पर एक नज़र डालते हैं –

1. Constant Comparison (लगातार तुलना)

सोशल मीडिया पर दूसरों की “highlight reel” देखकर हम अपनी असल ज़िंदगी से असंतुष्ट हो जाते हैं। हर कोई खुश, अमीर, successful दिख रहा है — और हम खुद को पीछे समझने लगते हैं। हमें समझना चाहिए की सच्चाई वो नहीं है जो हमें सोशल मीडिया पर दिख रही है बल्कि वो लोग खुद को बेहतर दिखाने का प्रयास कर रहे हैं जबकि उनकी असली जिंदगी में भी हज़ारों समस्याएं हैं | 

2. False Idea of Success (सफलता की झूठी परिभाषा)

बड़ा घर, महंगी गाड़ी, 6 figure income — हमें ये सिखाया गया है कि यही सफलता है। पर अंदर से हम emotionally खाली होते जा रहे हैं। पैसा और समृद्धि कभी इंसान को खुश नहीं रख सकती, ऐसा होता तो पैसे वालों के जीवन में कभी कोई दुःख ना आता | समाज की इसी गलत सोच ने लोगों को बुरी आदतों के लिए उकसाया है | 

3. Disconnected Relationships (कनेक्शन रहित रिश्ते)

बातचीत “seen” में बदल गई है, साथ बैठने के बाद भी लोग स्क्रीन में खोए रहते हैं। दिलों की जगह chats ने ले ली है। भावनाएं खत्म होती जा रहीं हैं,फोन पर हाल – चाल लेना ही बहुत हो जा रहा है कोई किसी से मिलने की फुर्सत नहीं निकाल पा रहा है | संबंधों में दूरियां बढ़ती जा रही हैं | यह सब कुछ मानसिक विकारों को बढ़ाता है |

4. Self-Awareness की कमी

लोग ये नहीं जानते कि उन्हें सच में क्या पसंद है। वो दूसरों की मंज़िल को अपनी मंज़िल मान बैठे हैं। दूसरों की नक़ल करना, उनके जैसा बनने का प्रयास करना, आज व्यक्ति के अपने वजूद के लिए समस्याएं खड़ी कर रहा है| स्व को जगाना और उसे स्थापित करना लोग भूलते जा रहे हैं | 

5. Overthinking और Anxiety

भविष्य की चिंता, या फिर बीते कल का पछतावा — दोनों ही हमें ‘अभी’ में जीने नहीं देते। धर्म की राह से भटके हुए युवा आज कर्म करने की जगह हवाई सपने देखने में जुटे हुए हैं और ऐसे सपने हमेशा फ़्रस्ट्रेशन और चिंता पर ही जाकर ख़त्म होते हैं | बनावटी और दिखावे की ज़िंदगी भी परेशानी का बड़ा कारण होती है | 

6. Toxic Positivity और Fake Happiness

“हमेशा खुश रहो” का दबाव इतना बढ़ गया है कि लोग दुख छिपाने लगे हैं। और जब दुख को जिया नहीं जाता, वो अंदर ही अंदर सड़ता है लोगों के मन में यह बात बैठ गयी है कि दुखी और परेशां लोगों को कोई पसंद नहीं करता, इसलिए वे अपनी समस्याओं को किसी से शेयर नहीं करना चाहते | 

Real-Life Example: एक लड़का जो अच्छे कॉलेज में है, अच्छी जॉब भी कर रहा है, फिर भी हर रात एक अजीब खालीपन महसूस करता है। वो सोचता है — “मैंने सब कुछ तो पा लिया, फिर भी मैं खुश क्यों नहीं हूँ?”
क्योंकि उसने कभी खुद से नहीं पूछा कि उसे क्या चाहिए। शायद उसे सगीत चाहिए हो या फिर कोई थका देने वाला आउटडोर गेम या फिर कोई उसे समझने और प्यार करने वाला जीवन साथी | 

यहाँ प्रस्तुत हैं खुश रहने के कुछ व्यवहारिक सुझाव:

Emotional honesty: अपनी भावनाओं को स्वीकार करें, आप जैसे भी हैं बहुत अच्छे हैं | 
Digital detox: Social media से ब्रेक लें, कुछ पढ़ें, कहीं घूमने जाएँ, किसी दोस्त से मिलें | 
Journaling करें: हर दिन के भावनात्मक अनुभव को अपनी डायरी में जरूर लिखें
Meaningful conversations करें: भरोसेमंद लोगों से खुलकर बात करें, कोई बात मन में मत रक्खे, शेयर करें | 
Self-compassion: खुद को उतनी ही दया दें जितनी आप दूसरों को देते हैं, अपनी असफलताओं को स्वीकार करना सीखें | 
Micro goals बनाएं: छोटे-छोटे लक्ष्य आपको कंट्रोल का एहसास देते हैं, ऐसे लक्ष्य आसानी से पुरे किये जा सकते हैं | 
Nature से जुड़ें: open spaces और greenery मानसिक शांति बढ़ाते हैं, जब भी मन उदास हो, कुछ समझ में न आये, भारीपन या घबराहट महसूस हो तो प्रकृति के सानिध्य में चले जाएँ, उसे निहारें, वहां बैठे और उसके साथ जीने की कोशिश करें| 
Scientific Fact: नियमित रूप से journaling करने वाले लोगों में stress hormones का स्तर 27% तक कम पाया गया है।

निष्कर्ष:

हालांकि खुश दिखना और सच में खुश होना — इन दोनों में फर्क है। इस फर्क को समझना और अपनी सच्ची भावनाओं को अपनाना ही आज की मानसिक अशांति का समाधान है। लोग दिखावटी व्यवहार अक्सर अपने अंदरूनी कमियों या असुरक्षाओं को छिपाने, दूसरों की नजर में अपनी छवि को बेहतर बनाने, या समाज में अपनी स्थिति को मजबूत करने के लिए करते हैं. वे अपनी ज़रूरतों को पूरा करने, ध्यान आकर्षित करने, या दूसरों से अनुमोदन प्राप्त करने की कोशिश में भी दिखावा कर सकते हैं| 


असुरक्षा और कम आत्मविश्वास, प्रसिद्ध होने की इच्छा, सामाजिक दबाव, ध्यान आकर्षित करने की इच्छा, मानसिक स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं आदि अनेक कारण हैं जिसकी वजह से लोग बनावटी ज़िंदगी जीने लगते हैं | आप भी क्या ऐसा ही कुछ महसूस करते हैं ? कमेंट में अपनी बात शेयर करें — शायद किसी और को राहत मिल जाए।

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❓Frequently Asked Questions (FAQs)

1. लोग झूठी खुशी क्यों दिखाते हैं जबकि वे अंदर से परेशान होते हैं?

उत्तर: क्योंकि समाज में “हमेशा खुश रहो” का दबाव है। लोग आलोचना, जजमेंट और अस्वीकार किए जाने के डर से अपनी असली भावनाएं छुपा लेते हैं और दिखावे की खुशी दिखाते हैं।

2. क्या सोशल मीडिया लोगों को अंदर से खाली महसूस कराता है?

उत्तर: हाँ, लगातार तुलना, ‘परफेक्ट लाइफ’ का दिखावा और लाइक्स-फॉलोअर्स का दबाव व्यक्ति के आत्म-सम्मान को कमजोर कर सकता है।

3. बनावटी मुस्कान और असली खुशी में क्या फर्क होता है?

उत्तर: बनावटी मुस्कान बाहर से होती है, लेकिन अंदर से कोई जुड़ाव नहीं होता। असली खुशी बिना किसी दिखावे के भी संतुष्टि और शांति देती है।

4. ऐसा क्यों होता है कि दूसरों को खुश दिखाने के चक्कर में हम खुद को खो देते हैं?

उत्तर: जब हम दूसरों की उम्मीदों के अनुसार जीते हैं, तो अपनी असली पसंद, ज़रूरतें और भावनाएं दबा देते हैं, जिससे आंतरिक संघर्ष और टूटन बढ़ती है।

5. Emotional Burnout क्या होता है और ये कैसे होता है?

उत्तर: जब हम लगातार मानसिक, भावनात्मक और सामाजिक दबाव में रहते हैं और खुद को समय नहीं देते, तब अंदर से थकावट आ जाती है जिसे Emotional Burnout कहते हैं।

6. लोग अपनी भावनाओं को छुपाकर क्यों जीते हैं?

उत्तर: डर, शर्म, रिजेक्शन और यह सोच कि “दूसरों को क्या लगेगा” — ये सारी चीजें लोगों को अपनी सच्ची भावनाएं छुपाने पर मजबूर करती हैं।

7. क्या हमेशा पॉजिटिव रहना जरूरी है?

उत्तर: नहीं। हर भावना — चाहे वो दुख हो, गुस्सा हो या डर — वैध है। जब हम सिर्फ पॉजिटिव रहने का दिखावा करते हैं, तो यह Toxic Positivity बन जाती है, जो और ज़्यादा नुकसान कर सकती है।

8. अगर मैं अंदर से टूट रहा हूँ तो क्या करूं?

उत्तर:

  • खुद से ईमानदार रहें

  • भरोसेमंद लोगों से बात करें

  • सोशल मीडिया से थोड़ी दूरी बनाएं

  • काउंसलर या मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ से मदद लें

  • लिखना, ध्यान लगाना और खुद को समय देना भी बेहद फायदेमंद है

9. Identity Crisis क्या होता है और क्या ये आम है?

उत्तर: जब व्यक्ति को यह समझ नहीं आता कि वह असल में कौन है या उसे क्या चाहिए, तो वह Identity Crisis से जूझता है। यह आजकल बेहद आम है, खासकर युवाओं में।

10. क्या दिखावे की खुशी लंबे समय तक चल सकती है?

उत्तर: नहीं। दिखावा केवल थोड़े समय के लिए राहत देता है, लेकिन अंदर की खालीपन तब तक बनी रहती है जब तक हम खुद को स्वीकारना और समझना नहीं सीखते।

Internal Links; नॉलेज से पेट मत भरिए — इन्फॉर्मेशन डायटिंग कीजिए !

External Link; https://www.calm.com/blog/how-to-find-happiness/

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