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क्यों हम अपनी गलतियों को नहीं देख पाते? Emotional Blindspots

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क्यों हम अपनी गलतियों को नहीं देख पाते? Emotional Blindspots

इमोशनल ब्लाइंडस्पॉटक्या आपने कभी सोचा है कि लोग हमारी कमियाँ हमसे पहले कैसे पहचान लेते हैं?
किसी बहस के बाद हमें क्यों लगता है कि “शायद गलती मेरी थी”?
क्यों रिश्तों में या अपने व्यवहार में हम कुछ चीज़ें समझ ही नहीं पाते?

इसी अनदेखे हिस्से को कहते हैं- हमारा अँधा भावनात्मक कोना, यानी वो जगह जहाँ हम अपने बारे में सच नहीं देख पाते। इसी को मनोविज्ञान की भाषा में ‘ब्लाइंडस्पॉट’ कहा जाता है।

हम अपनी ही गलतियों को नहीं देख पाते क्योंकि दिमाग खुद को बचाने के लिए कुछ “इमोशनल ब्लाइंडस्पॉट्स” बना लेता है, जिनकी वजह से हमारा नज़रिया टेढ़ा हो जाता है और सच सामने होते हुए भी दिखाई नहीं देता।

यह ब्लाइंडस्पॉट्स हमें थोड़ी देर के लिए शर्म, अपराधबोध और डर से बचाते हैं, लेकिन लंबी अवधि में रिश्तों, काम और सेल्फ‑ग्रॉथ को नुकसान पहुंचाते हैं। यहाँ हम व्यवहार के उसी पक्ष पर विस्तार से जानेंगे।

इमोशनल ब्लाइंडस्पॉट क्या हैं?

इमोशनल ब्लाइंडस्पॉट वे मनोवैज्ञानिक “अंधे धब्बे” हैं जहाँ हमारी सोच या भावनाओं में बड़ी गड़बड़ी होती है, पर हमें खुद इसका पता नहीं चलता। जैसे कार के रियर‑व्यू मिरर में एक एरिया ऐसा होता है जो दिखता ही नहीं, वैसे ही हमारी पर्सनैलिटी और इमोशंस का भी एक हिस्सा हमारी नज़र से छिपा रहता है।

ये ब्लाइंडस्पॉट अक्सर उन भावनाओं से जुड़े होते हैं जिन्हें हमने कभी पूरी तरह महसूस या प्रोसेस नहीं किया, इसलिए दिमाग उन्हें छुपाने या जस्टिफाई करने की आदत बना लेता है। नतीजा यह होता है कि हम खुद को “लॉजिकल” समझते रहते हैं जबकि हमारा व्यवहार अनजाने डर, शर्म या पुराने घावों से चल रहा होता है। सीधी भाषा में- हमारे व्यवहार की वह कमी या आदत, जिसे दुनिया तो देख लेती है, लेकिन हम खुद नहीं देख पाते।

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क्यों हम अपनी गलती नहीं देख पाते?

आखिर वो वजह क्या है जिसके कारण हम अपनी गलतियां देख नहीं पाते या समझ नहीं पाते –

1. सेल्फ‑इमेज बचाने की ज़रूरत

हर इंसान के अंदर एक अंदरूनी इमेज होती है- “मैं अच्छा हूँ”, “मैं समझदार हूँ”, “मैं केयरिंग हूँ”- दिमाग इस इमेज को टूटने नहीं देना चाहता। अगर अपनी गलती मान लें, तो यह इमेज हिलती है, इसलिए दिमाग तुरंत डिफेंस में जाकर बहाने, तर्क और जस्टिफिकेशन बना देता है।

2. कॉग्निटिव डिसोनेंस से बचना

जब “मैं सही हूँ” वाली सोच और हमारे गलत व्यवहार में टकराव होता है, तो दिमाग को इन दोनों के बीच गैप से बेचैनी होती है, इसे कॉग्निटिव डिसोनेंस कहते हैं। इस बेचैनी से बचने के लिए हम या तो फैक्ट्स को तोड़‑मरोड़ते हैं या दूसरों को ही गलत ठहरा देते हैं, ताकि हमारा “मैं” मानसिक रूप से सुरक्षित रहे।

3. इगो की आत्मरक्षा प्रणाली

इगो का काम है हमें शर्म, हीनभावना और असहायता जैसी भावनाओं से बचाना, इसलिए वह गलती को मानने की बजाय “मैंने तो कुछ खास किया ही नहीं”, “सब ऐसे ही करते हैं”, “मेरे इरादे तो अच्छे थे” जैसे डायलॉग चला देता है। इससे तुरंत राहत तो मिलती है, लेकिन रियलिटी से दूरी बढ़ती जाती है।

4. अधूरे इमोशंस और पुराने घाव

जिन भावनाओं को बचपन या रिश्तों में कभी सेफ स्पेस नहीं मिला- जैसे गुस्सा, उदासी, जलन- वे दबी रह जाती हैं और बाद में ब्लाइंडस्पॉट्स बन जाती हैं। जब कोई सिचुएशन इन्हीं दबे इमोशंस को ट्रिगर करती है, तो हम रिएक्ट तो बहुत मजबूती से करते हैं, लेकिन यह नहीं समझ पाते कि इस ओवररिएक्शन का असली सोर्स हमारी पुरानी अधूरी भावनाएँ हैं।

5. कंडिशनिंग और सामान्यीकरण

जो चीज़ सालों से की जा रही हो, वह हमें “नॉर्मल” लगने लगती है, चाहे वह टॉक्सिक ही क्यों न हो। अगर घर या सोसायटी में जिम्मेदारी टालना, जरुरत से ज्यादा झूठ बोलना, हर किसी पर शक करना, गुस्से में चिल्लाना या किसी को अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करना, इमोशनल मैनिपुलेशन आदि कॉमन रहा हो, तो दिमाग इसे गलती के रूप में रजिस्टर ही नहीं करता। इसे सामान्य मानता है।

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इमोशनल ब्लाइंडस्पॉट्स के आम लक्षण

  • बार‑बार वही रिश्ते वाले ड्रामे रिपीट होना, हर रिश्ते में समस्या (हर बार “गलत लोग” मिलना)।
  • हर बहस/झगड़े में खुद को ही विक्टिम या हीरो देखना, बीच का रोल कभी नहीं।
  • “सबकी प्रॉब्लम मुझे ही समझ आती है, पर कोई मुझे नहीं समझता” वाली फीलिंग का ओवरयूज़।
  • फीडबैक सुनते ही डिफेंसिव हो जाना या तुरंत पलटवार करना।
  • अपने व्यवहार पर सोचने/विचार करने की जगह, दूसरों की कमियों की लिस्ट बनाते रहना।
  • बार-बार वही गलतियाँ दोहराना- चाहे रिश्तों में, काम में या अपनी आदतों में। फिर भी कहते रहना- “पता नहीं मेरे साथ ही ऐसा क्यों होता है।”

ये सारे पैटर्न इस बात की ओर इशारा करते हैं कि कहीं न कहीं हम अपनी भावनात्मक वास्तविकता से से कटे हुए हैं और दिमाग ने “सेफ्टी के नाम पर” कुछ सच्चाइयों पर पर्दा डाल रखा है। जिन्हे हम जानना ही नहीं चाहते।

इमोशनल ब्लाइंडस्पॉट के कारण

खुद की गलती न देखने के मनोवैज्ञानिक कारण

1. डिनायल (इनकार)

इनकार सबसे सिंपल डिफेंस मैकेनिज़्म है – “ऐसा हुआ ही नहीं”, “इतना भी बुरा नहीं था” “मैंने कुछ किया ही नहीं”। इससे हम दर्दनाक सच्चाई से तुरंत दूरी बना लेते हैं, लेकिन जिम्मेदारी भी वहीं की वहीं रह जाती है।

2. प्रोजेक्शन (अपनी चीज़ दूसरों पर थोपना)

जो गुण या कमजोरी अपने अंदर स्वीकारना मुश्किल हो, उसे दूसरों में देखने लगते हैं – जैसे खुद इनसिक्योर हों तो हर किसी को “ओवरसेंसिटिव” या “बहुत अधिकार जताने वाला” कहना। इससे अंदर के कॉन्फ्लिक्ट बाहर के झगड़े बन जाते हैं।

3. रैशनलाइज़ेशन (गलती के लिए तर्क गढ़ना)

यहाँ दिमाग गलती को ऐसा तार्किक फ्रेम देता है कि हमें खुद भी वो सही लगे- “मैंने झूठ बोला क्योंकि उसे सच्चाई से दुःख होता”, “मैंने रिएक्ट किया क्योंकि सामने वाला लिमिट क्रॉस कर चुका था”। असली मकसद खुद को अच्छे इंसान की इमेज में बनाए रखना होता है।

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रिश्तों में इमोशनल ब्लाइंडस्पॉट्स कैसे दिखते हैं?

हमेशा खुद को देने वाला और दूसरों को “यूज़र” समझना-

कई बार हमें लगता है कि लोग हमें इस्तेमाल करते हैं। “मैं सबके लिए अच्छा करता हूँ, लेकिन कोई मेरी परवाह नहीं करता।“सब मुझे यूज़ कर जाते हैं।” लेकिन सच यह है कि हम खुद ही अपनी सीमाएँ तय नहीं करते, इसलिए सामने वाला उतना ले लेता है, जितना हम देते जाते हैं।

जब कोई हमें दुख देता है या हमारा फायदा उठा लेता है, तो उसे “टॉक्सिक” कह देना बहुत आसान है। क्योंकि इससे हमें सुकून मिलता है कि गलती हमारी नहीं- उसकी है। लेकिन असल सच यह भी हो सकता है कि हमें लोगों की तारीफ़ और स्वीकृति की आदत पड़ गई होती है
हम सोचते हैं “दूसरों को खुश रखूँगा तो लोग मुझे पसंद करेंगे”

ओवरकंट्रोल या ओवरडिपेंडेंसी-

कई लोग अपने पार्टनर या परिवार पर बहुत ज्यादा कंट्रोल करते हैं और उसे “केयर” का नाम दे देते हैं। और कई लोग इतने दूसरों पर इतने डिपेंडेंट हो जाते हैं कि अपनी जिम्मेदारियाँ भी दूसरे पर डाल देते हैं।
दोनों ही हालात में मन की असली भावनाएँ- डर, अकेलापन और असुरक्षा, अंदर ही दबे रह जाते हैं।

हर झगड़े में खुद को सही ठहराना-

अगर हर लड़ाई में आख़िरी नतीजा यही हो: “गलती मेरी नहीं थी”,ये तुम्हारी ही गलती है”, तो यह क्लियर सिग्नल है कि आप दूसरों की भावनाओं को नहीं समझते, बल्कि खुद का बचाव कर रहे हैं। ऐसे में रिश्ता धीरे‑धीरे जहरीलेपन से भरता जाता है, पर दोनों पार्टनर अपने‑अपने नरेटिव में फँसे रहते हैं।

इमोशनल ब्लाइंडस्पॉट्स के साइड इफेक्ट्स

हमारे शरीर और जीवन पर इस भावनात्मक ब्लाइंड स्पॉट का जो प्रभाव पड़ता है उसे भी जानना जरुरी है –

1. सेल्फ‑ग्रोथ रुक जाना

जब तक गलती दिखेगी नहीं, तब तक सुधार की प्रेरणा भी नहीं आएगी। इंसान बार‑बार वही चक्र दोहराता है – नए पार्टनर, नई जॉब, नया सिटी, नए रिश्ते- पर अंदर की थीम वही रहती है कोई बदलाव नहीं होता। इसलिए ग्रोथ रुक जाता है।

2. रिश्तों में भरोसा और इंटिमेसी कम होना

जो इंसान अपनी गलती मान ही नहीं पाता, उससे लोगों को भावनात्मक सुरक्षा महसूस करना मुश्किल होता है, और धीरे‑धीरे लोग दूर होने लगते हैं या सिर्फ औपचारिक रिश्ते बचते हैं। रिश्तों की गहराई या नजदीकियां ख़त्म हो जाती हैं।

3. लगातार अपराधबोध और शर्म

ऊपर से चाहे कोई जितना मना करें, पर अंदर कहीं न कहीं दिमाग को रियलिटी का थोड़ा‑बहुत अंदाज़ा होता है, जो एक अनकहा अपराधबोध और शर्म के रूप में दिमाग में जमा होता रहता है। यह आगे जाकर चिंता, डिप्रेशन या साइकोसोमैटिक सिंप्टम्स (सिर दर्द, बॉडी पेन, पेट की दिक्कतें) आदि में बदल सकता है।

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अपनी गलतियाँ देखने का सही तरीका

1. माइक्रो‑रिफ्लेक्शन रूटीन

हर रात  5–10 मिनट के लिए खुद से तीन सवाल पूछें: आज मैंने कहाँ ओवररिएक्ट किया? आज किस जगह मैं खुद को 100% सही मान रहा हूँ, क्या कोई दूसरा एंगल भी हो सकता है? अगर मेरे क्लोज़ दोस्त से यही बात सुनूँ, तो उसे क्या फीडबैक दूँगा? इस तरह का डेली रिफ्लेक्शन और अपनी गलतियों को खोजना, दिमाग को यह मैसेज देता है कि गलती देखना खतरा नहीं, बल्कि ग्रोथ का हिस्सा है।

2. “थर्ड‑कैमरा व्यू” टेक्निक

किसी भी झगड़े या कॉन्फ्लिक्ट को ऐसे याद करें जैसे ऊपर से एक कैमरा रिकॉर्ड कर रहा हो और आप दोनों को एक साथ देख रहा हो। खुद से पूछें: अगर मैं न्यूट्रल ऑब्ज़र्वर होता, तो मेरा वर्ज़न कितना चेंज होता? मेरी बॉडी लैंग्वेज, टोन, शब्द- क्या वाकई इतने “नॉर्मल” थे जितना मुझे उस समय लगा? यह एक्सरसाइज़ मानसिक असहजता को थोड़ा‑सा कम करती है और दिमाग को अपनी भूमिका देखने का मौका देती है।

3. ईमानदार फीडबैक सर्किल

2–3 ऐसे लोग चुनें जो ईमानदारी से बोलते हों और जिन पर आपको भरोसा हो, उनसे सीधा सवाल पूछें: “मेरे साथ डील करना सबसे मुश्किल कब लगता है?” “मेरे अंदर ऐसा क्या है जो मुझे खुद नहीं दिखता, पर बाहर से साफ दिखता है?” कहाँ मेरा व्यवहार गलत हो जाता है?  शर्त यह है कि बीच में आपको डिफेंसिव नहीं होना है, सिर्फ नोट करना है। बाद में शांत दिमाग से उन पॉइंट्स पर विचार करें। खुद से सच बोलना शुरू करें, गलती मान लेना कमजोरी नहीं- परिपक्वता है।

4. बॉडी‑अवेयरनेस और भावनाओं को नाम देना

जब भी किसी बहस या ट्रिगर में फँसे हों, तुरंत खुद से पूछें: अभी मेरे शरीर में क्या चल रहा है? (दिल की धड़कन, छाती में जकड़न, गले में रुकावट)  इस फिजिकल सेंसेशन के पीछे कौन‑सी इमोशन हो सकती है– गुस्सा, डर, शर्म, जलन, अकेलापन या कुछ और ?

अपनी छिपी हुई भावनाओं को नाम/पहचान देना, इमोशनल ब्लाइंडस्पॉट्स को थोड़ा‑थोड़ा साफ करता है, क्योंकि अब दिमाग सिर्फ “मैं सही हूँ” की बजाय “मैं डरा हुआ हूँ/मैं शर्मिंदा हूँ” भी देखने लगता है। अपनी भावनाओं को ध्यान से देखें- जहाँ ज्यादा चिड़चिड़ाहट होती है, वहीं कोई छिपी हुई सच्चाई होती है।

5. आत्म दया, न कि आत्म घृणा

अगर गलती दिखते ही हम खुद को ही गाली देने लगें- “मैं ही खराब हूँ”, “मैं हमेशा सब बिगाड़ देता हूँ” तो दिमाग अगली बार फिर से डिनायल मोड में भागेगा, ताकि यह टॉर्चर न झेलना पड़े। इसलिए ज़रूरी है कि गलती दिखने पर खुद से कुछ ऐसे वाक्य कहे जाएँ:
“अपनी गलती देख पाना भी हिम्मत है।” “मैं सीख रहा हूँ, धीरे‑धीरे बेहतर हो सकता हूँ।”

आत्मदया का भाव दिमाग को यह सुरक्षा देता है कि सच्चाई देखने पर भी “मैं टुकड़े‑टुकड़े नहीं हो जाऊँगा”, और यही सुरक्षा ब्लाइंडस्पॉट्स को दूर करने में मददगार होती है।

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कब प्रोफेशनल हेल्प ज़रूरी हो सकती है?

अगर आपको लगे कि: अलग‑अलग रिश्तों और काम में वही पैटर्न बार‑बार रिपीट हो रहा है। गुस्सा, अपराधबोध, या शेम इतना ज़्यादा है कि खुद से हैंडल नहीं हो रहा। शरीर में दर्द, चिंता, या नींद न आने की समस्याये बढ़ते जा रहे हैं। तो किसी थैरेपिस्ट या काउंसलर के साथ काम करना मददगार हो सकता है, क्योंकि कई गहरे ब्लाइंडस्पॉट्स अकेले देखना मुश्किल होता है।

निष्कर्ष: गलती दिखना ही असली ग्रोथ

हम अपनी गलतियाँ नहीं देख पाते क्योंकि दिमाग हमें तुरंत दर्द से बचाने के लिए इमोशनल ब्लाइंडस्पॉट्स बना देता है, लेकिन यही ब्लाइंडस्पॉट्स हमें सालों तक वही ज़िंदगी रिपीट कराते रहते हैं। जैसे गाड़ी चलाते समय ब्लाइंडस्पॉट जानकर मिरर और पोज़िशन एडजस्ट करते हैं, वैसे ही इमोशनल लाइफ में भी आत्म जागरूकता, ईमानदार फीडबैक, गलतियों पर विचार और आत्म दया से अपने “अंधे धब्बे” धीरे‑धीरे दिखने लगते हैं।

विकास तभी होता है जब हम अपने अंदर रोशनी ले जाने की हिम्मत करें। जब हम अपने ब्लाइंडस्पॉट देख लेते हैं—तो हमारा व्यवहार बदलता है, हमारे रिश्ते सुधरते हैं, हमारे फैसले मजबूत होते हैं, और हमारी ज़िंदगी धीरे-धीरे साफ़ और शांत हो जाती है।

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https://www.refinery29.com/en-gb/how-to-spot-emotional-blind-spots

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