
भारत जैसे देश में जहाँ भौतिक स्वास्थ्य पर काफी ध्यान दिया जाता है, वहीं मानसिक स्वास्थ्य को अभी भी उपेक्षित ही किया जाता है। यह न केवल एक सामाजिक चुनौती है, बल्कि एक गहरी मानसिकता से जुड़ी हुई समस्या भी है, जो पीढ़ियों से चली आ रही है। मानसिक स्वास्थ्य की अनदेखी सिर्फ एक मेडिकल समस्या नहीं, बल्कि एक सामाजिक चेतना की कमी है। जब तक हम इस कलंक को नहीं तोड़ते और मानसिक स्वास्थ्य को सामान्य स्वास्थ्य का हिस्सा नहीं मानते, तब तक समाज का मानसिक रूप से स्वस्थ होना मुश्किल है।
आइए समझते हैं कि क्यों भारत में मानसिक स्वास्थ्य को नजरअंदाज़ किया जाता है, और इसके पीछे कौन-कौन से कारक जिम्मेदार हैं। भारत में मानसिक स्वास्थ्य की अनदेखी कई जटिल सामाजिक, आर्थिक और स्वास्थ्य-व्यवस्था संबंधी कारणों से होती है।
मानसिक स्वास्थ्य: एक परिचय
-मानसिक स्वास्थ्य का अर्थ केवल मानसिक बीमारियों से मुक्त रहना नहीं है, बल्कि यह व्यक्ति के संज्ञानात्मक, भावनात्मक और सामाजिक कल्याण को भी दर्शाता है।
-यह इस बात को भी इंगित करता है कि व्यक्ति तनाव का सामना कैसे करता है, दूसरों के साथ उसके संबंध कैसे हैं और वह अपने जीवन में कैसे निर्णय लेता है। वह जीवन में कितना सफल हो सकता है।
-भारत में कुछ लोग मानसिक समस्याओं को धार्मिक दृष्टिकोण से देखते हैं। उन्हें लगता है कि यह किसी ‘बुरी आत्मा’ या ‘किसी श्राप’ का परिणाम है। इसके चलते, वे मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं की बजाय तांत्रिक, फ़कीर या ओझा के पास जाते हैं।
भारत में मानसिक स्वास्थ्य की स्थिति: चौंकाने वाले आंकड़े
प्रमुख आँकड़े:
-भारत में लगभग 15% लोग किसी न किसी मानसिक बीमारी से पीड़ित हैं, यानी लगभग 19.7 करोड़ लोग।
https://www.sanskritiias.com/hindi/current-affairs/development-of-mental-health-care-in-india
-2015-16 के राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य सर्वे (NMHS) के अनुसार, 10.6% वयस्कों में मानसिक विकार पाए गए।
मानसिक विकारों की आजीवन व्यापकता 13.7% है।
-इलाज का अंतराल (Treatment Gap) 70% से 92% तक है, यानी ज़रूरतमंदों में से बहुत कम लोगों को इलाज मिल पाता है। https://pib.gov.in/PressReleasePage.aspx?PRID=2100969
-ग्रामीण क्षेत्रों में 6.9%, गैर-महानगरीय शहरी क्षेत्रों में 4.3% और महानगरों में 13.5% लोगों में मानसिक विकार पाए गए।
https://pib.gov.in/PressReleasePage.aspx?PRID=2100969
-2017 में, 45.7 मिलियन लोग डिप्रेशन और 44.9 मिलियन लोग एंग्जायटी से जुड़े विकारों से जूझ रहे थे।
https://www.drishtiias.com/hindi/daily-updates/daily-news-analysis/mental-health-in-india
-भारत में प्रति 1 लाख जनसंख्या पर केवल 0.75 मनोचिकित्सक उपलब्ध हैं, जबकि WHO के अनुसार यह संख्या कम से कम 3 होनी चाहिए। https://www.sanskritiias.com/hindi/current-affairs/development-of-mental-health-care-in-india
-मेडिकल छात्रों में 27.8% स्नातक और 15.3% स्नातकोत्तर छात्रों में मानसिक स्वास्थ्य विकार पाए गए।
https://www.drishtiias.com/hindi/daily-updates/daily-news-analysis/mental-health-in-india
-किशोरों में कोविड-19 के बाद 11% ने हमेशा चिंतित रहने, 14% ने अत्यंत भावुक रहने और 43% ने बार-बार मूड बदलने की शिकायत की। https://pib.gov.in/PressReleasePage.aspx?PRID=2100969
मानसिक स्वास्थ्य की अनदेखी के कारण
1 . सामाजिक कलंक और जागरूकता की कमी
-मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं को पागलपन या कमजोरी के रूप में देखा जाता है। लोग इसे एक मनोवैज्ञानिक बीमारी मानने की बजाय सामाजिक कलंक के रूप में देखते हैं। इससे व्यक्ति अपने लक्षणों को छुपाने लगता है और उपचार के लिए आगे नहीं आता।
-उदाहरण: यदि कोई व्यक्ति डिप्रेशन या एंग्जायटी का अनुभव कर रहा है, तो उसे अक्सर ‘यह सब मन का वहम है’ या ‘मजबूत बनो’ कहकर नजरअंदाज कर दिया जाता है।
-भारत में मानसिक स्वास्थ्य के बारे में लोगों में जागरूकता की कमी है। लोग मानसिक विकारों को शारीरिक बीमारियों जितना गंभीर नहीं मानते। यह अज्ञानता न केवल आम लोगों में है, बल्कि कई बार डॉक्टर और स्वास्थ्यकर्मी भी मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं को समझने में असमर्थ होते हैं।
2. पारिवारिक और सामाजिक दबाव:
-भारतीय समाज में पारिवारिक इज्जत और सामाजिक प्रतिष्ठा को अत्यधिक महत्व दिया जाता है। मानसिक समस्याओं को स्वीकार करने से परिवार अपमानित महसूस कर सकता है।
-यदि घर में कोई मानसिक समस्या से ग्रसित है तो उस परिवार को रिश्तेदारों या पास – पड़ोस द्वारा बेचारगी की नज़र से देखा जाता है। ऐसे में परिवार को शर्मिंदगी होती है।
-इन सब स्तिथियों के परिणामस्वरूप, लोग मानसिक समस्याओं को छुपाते हैं और उनकी स्थिति और बिगड़ जाती है।
3. विशेषज्ञों और संसाधनों की भारी कमी
-भारत में प्रति 1 लाख जनसंख्या पर केवल 0.75 मनोचिकित्सक उपलब्ध हैं, जबकि WHO के अनुसार यह संख्या कम से कम प्रति 1 लाख पर 3 होनी चाहिए।
-देश में मनोवैज्ञानिक, नर्स, और सामाजिक कार्यकर्ता भी बहुत कम हैं, जिससे इलाज की पहुंच सीमित हो जाती है।
राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य नीति (2014) और मानसिक स्वास्थ्य सेवा अधिनियम (2017) के बावजूद, नीति के क्रियान्वयन, संसाधनों के आवंटन का अभाव है। परिणामस्वरूप, मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार नहीं हो पाया है
-देश में मानसिक स्वास्थ्य पेशेवरों, अस्पतालों और अन्य प्रतिष्ठानों की भारी कमी है। पूरे भारत में केवल 47 सरकारी मानसिक अस्पताल हैं।https://researchmatters.in/hi/news/bhaarata-kaa-maanasaika-savaasathaya-sankata-paraidarsaya-kayaa-bhaarata-kae-paasa-asanana
4. आर्थिक और बुनियादी ढांचे की चुनौतियाँ
-स्वास्थ्य बजट का बहुत छोटा हिस्सा मानसिक स्वास्थ्य पर खर्च होता है; 2019 में सिर्फ 600 करोड़ रुपए और हाल के बजट में 1,000 करोड़ रुपए ही आवंटित किए गए, जबकि जरूरत इससे कहीं ज्यादा है।
-निजी इलाज की लागत बहुत अधिक है, जिससे गरीब और ग्रामीण आबादी के लिए सेवाएं उपलब्ध नहीं हो पातीं।
-प्राइवेट मनोचिकित्सक की फीस ₹1000–₹3000 तक होती है, जो एक मध्यमवर्गीय या निम्नवर्गीय परिवार के लिए बोझ बन सकती है। सरकारी अस्पतालों में सुविधाएं सीमित हैं और वेटिंग लिस्ट लंबी।
-देश में मानसिक स्वास्थ्य सेवाएं महंगी होने के और लम्बे समय तक इलाज चलने के कारण अधिकांश लोग इन सेवाओं का खर्च वहन करने में असमर्थ होते हैं।

5 . शहरी-ग्रामीण असमानता
– मानसिक स्वास्थ्य सेवाएं मुख्यतः शहरी क्षेत्रों में केंद्रित हैं, जबकि ग्रामीण इलाकों में सुविधाओं और विशेषज्ञों की भारी कमी है।
ग्रामीण क्षेत्रों में योग्य और प्रशिक्षित मानसिक स्वास्थ्य डॉक्टर मौजूद नहीं होते है। शहरी इलाकों में चिकित्सा संस्थान, अस्पताल और विशेषज्ञ अधिक संख्या में उपलब्ध हैं, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में यह सुविधा सीमित है। इससे ग्रामीण आबादी के लिए मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच बेहद कठिन हो जाती है।
अक्सर मानसिक स्वास्थ्य के लिए पश्चिमी देशों के या शहरी मॉडल अपनाए जाते हैं, जो ग्रामीण भारत की सामाजिक-सांस्कृतिक विविधता के अनुकूल नहीं होते। इससे ग्रामीण क्षेत्रों में सेवाओं का प्रभाव सीमित रह जाता है
– ग्रामीण क्षेत्रों में परिवहन और लॉजिस्टिक्स की समस्याएं भी इलाज की राह में रोड़ा बनती हैं जबकि जानकारी और जागरूकता का अभाव सबसे बड़ी बाधा बन जाती है।
6. नीति और क्रियान्वयन की कमजोरियाँ
– मानसिक स्वास्थ्य को ऐतिहासिक रूप से नीति-निर्माताओं ने कभी प्राथमिकता नहीं दी।
– कानून और नीतियां जैसे, राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य नीति 2014 और मानसिक स्वास्थ्य सेवा अधिनियम 2017 लागू तो हैं, लेकिन संसाधनों की कमी और क्रियान्वयन में ढिलाई के कारण इनका असर सीमित रहता है।
7. शिक्षा और मानसिक स्वास्थ्य साक्षरता की कमी
– स्कूल, कॉलेज और समुदाय स्तर पर मानसिक स्वास्थ्य साक्षरता के लिए पर्याप्त शैक्षिक पहल नहीं हैं, जिससे युवा और बच्चे भी इस समस्या का सामना कर रहे हैं। स्कूलों और कॉलेजों में मानसिक स्वास्थ्य शिक्षा पर जोर नहीं दिया जाता।
-बच्चों और युवाओं को मानसिक स्वास्थ्य के लक्षण और उनकी पहचान के बारे में सिखाया नहीं जाता, जिससे वे अपनी या दूसरों की समस्याओं को समझ नहीं पाते।
-जागरूकता इतनी कम है कि अधिकांश युवा नहीं जानते कि मानसिक समस्याएं भी इलाज योग्य होती हैं।
-उदाहरण: छात्रों को डिप्रेशन के लक्षण समझाने की बजाय केवल नंबरों और रिज़ल्ट पर ध्यान दिया जाता है, जिससे वे खुद को नकारा समझने लगते हैं और समस्या को पहचान नहीं पाते।
8. काम काज का अतिरिक्त दबाव:
-भारतीय कार्यस्थलों में मानसिक स्वास्थ्य विषय को नज़रअंदाज़ किया जाता है इस पर अधिक ध्यान नहीं दिया जाता।
-काम के दबाव, असुरक्षा और तनाव के कारण कर्मचारियों में चिंता और अवसाद के केस बढ़ते जा रहे हैं।
-कई बार, नौकरी खोने या काम ना मिलने के डर से लोग अपनी मानसिक समस्याओं को साझा करने से कतराते हैं।
-सामान्य नौकरीपेशा आबादी के संदर्भ में, 2021 के नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के आंकड़ों के अनुसार, स्नातक या उससे ऊपर शिक्षित पुरुषों में आत्महत्या दर 8.9 थी,जबकि CAPF कर्मियों के लिए आत्महत्या दर प्रति 1 लाख कर्मियों पर 13 थी, जो समान जनसंख्या में पुरुषों की तुलना में अधिक है।
मानसिक स्वास्थ्य की उपेक्षा के परिणाम
1- आत्महत्या की दर में वृद्धि:
मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं का समय पर इलाज न होने के कारण लोग निराशा और अवसाद में घिर जाते हैं। इससे आत्महत्या के मामलों में वृद्धि हो रही है। भारत में आत्महत्या की दर विश्व में सबसे अधिक है। इसके लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार, आत्महत्या से संबंधित आँकड़े यहाँ देखे जा सकते हैं: WHO – Suicide Rate in India
पुलिस और अन्य नौकरी पेशा लोगों में आत्महत्या की स्थिति पर ऊपर बात की जा चुकी है। देश में सबसे अधिक आत्महत्या के मामले दिहाड़ी मजदूरों के समूह में आते हैं, जो कुल आत्महत्या पीड़ितों का 26% हैं। https://en.wikipedia.org/wiki/Suicide_in_India
परिवारिक और सामाजिक रिश्तों में खटास:
मानसिक समस्याओं के कारण व्यक्ति चिड़चिड़ा, गुस्सैल या उदास रहने लगता है। इसका प्रभाव उसके पारिवारिक और सामाजिक संबंधों पर पड़ता है। लोग उससे दूरी बनाने लगते हैं, जिससे वह और अधिक अकेला महसूस करता है। ऐसे लोग सामान्य जीवन जीने में असमर्थ हो जाते हैं क्योकि उन्हें किसी भी स्तर पर सहयोग नहीं मिलता।
कार्यक्षमता में कमी:
मानसिक तनाव और चिंता के कारण व्यक्ति की एकाग्रता कम हो जाती है। तनाव और चिड़चिड़ापन बढ़ने लगता है इससे उसकी कार्यक्षमता प्रभावित होती है। वह अपनी नौकरी या पढ़ाई में अपेक्षित प्रदर्शन नहीं कर पाता।
नशे की लत लगना:
अवसाद और निराशा से उबरने के लिए लोग नशे का सहारा लेने लगते हैं। यह आदत धीरे-धीरे गंभीर लत में बदल जाती है, जिससे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य और भी खराब हो जाता है। यह समस्या सबसे आम पाई जाती है।
अपराध दर में वृद्धि:
मानसिक अस्थिरता के कारण कुछ लोग आक्रामक या हिंसक हो सकते हैं। वे अपनी भावनाओं को नियंत्रित नहीं कर पाते और गैरकानूनी गतिविधियों में संलग्न हो जाते हैं। अधिकांश अपराध की जड़ में नशा और सनकीपन होता है।
मानसिक स्वास्थ्य को प्राथमिकता देने के उपाय
जागरूकता अभियान: स्कूलों, कॉलेजों और कार्यस्थलों पर मानसिक स्वास्थ्य जागरूकता कार्यक्रम चलाना।
सस्ती और सुलभ सेवाएं: ग्रामीण क्षेत्रों में किफायती मानसिक स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान करना।
परामर्श केंद्र: प्रत्येक जिले में परामर्श केंद्रों की स्थापना।
शिक्षा में शामिल करना: स्कूल पाठ्यक्रम में मानसिक स्वास्थ्य से संबंधित अध्याय शामिल करना।
मीडिया और सोशल मीडिया का उपयोग: मानसिक स्वास्थ्य के प्रति लोगों की सोच बदलने के लिए सोशल मीडिया और टेलीविजन का प्रभावी उपयोग।
पारिवारिक समर्थन: परिवार को मानसिक स्वास्थ्य के महत्व के बारे में शिक्षित करना।
वरीयता मिले: सरकार मानसिक स्वास्थ्य को उतनी ही प्राथमिकता दे जितनी हार्ट डिज़ीज़ या डायबिटीज़ को देती है।
हालिया सरकारी पहलें
हालांकि स्थिति गंभीर है, लेकिन सकारात्मक बदलाव भी हो रहे हैं: आयुष्मान भारत योजना में अब मानसिक स्वास्थ्य को भी शामिल किया गया है। ऑनलाइन काउंसलिंग प्लेटफॉर्म्स जैसे BetterHelp, YourDOST, और iCall लोगों को गोपनीय और सस्ती मदद दे रहे हैं।
बॉलीवुड और क्रिकेट से जुड़े सेलेब्रिटीज जैसे दीपिका पादुकोण, विराट कोहली आदि ने अपने मानसिक संघर्ष साझा कर खुलेपन को बढ़ावा दिया है।
-आयुष्मान भारत के तहत 1.73 लाख से अधिक उप-स्वास्थ्य केंद्रों और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों को मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं से जोड़ा गया है।
-राष्ट्रीय टेली मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम (टेली मानस) के तहत मुफ्त, 24/7 हेल्पलाइन शुरू की गई है, जिससे लाखों लोगों को सहायता मिली है।
-25 उत्कृष्टता केंद्रों की स्थापना, 19 सरकारी मेडिकल कॉलेजों में मानसिक स्वास्थ्य विभागों का विस्तार और 22 नए एम्स में मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं की शुरुआत की जा रही है। https://www.pib.gov.in/PressReleasePage.aspx?PRID=2100969
https://www.sanskritiias.com/hindi/current-affairs/development-of-mental-health-care-in-india
निष्कर्ष
भारत में मानसिक स्वास्थ्य समस्याएँ अत्यंत व्यापक हैं, लेकिन इलाज और संसाधनों की भारी कमी है। सरकार ने हाल के वर्षों में कई पहलें शुरू की हैं, परंतु मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं की पहुँच, पेशेवरों की संख्या, बजट और सामाजिक जागरूकता के स्तर में अभी भी बड़ा अंतराल है। इन चुनौतियों को दूर करने के लिए नीति, बजट, संसाधन और सामाजिक दृष्टिकोण-सभी स्तरों पर ठोस प्रयासों की आवश्यकता है।
भारत में मानसिक स्वास्थ्य की अनदेखी का मूल कारण सामाजिक कलंक, जागरूकता की कमी, विशेषज्ञों और संसाधनों की भारी कमी, आर्थिक बाधाएं, और नीति-क्रियान्वयन की कमजोरियाँ हैं। हाल के वर्षों में सरकार ने टेली-मानस, NMHP, और जागरूकता अभियानों जैसे कई प्रयास किए हैं, लेकिन इन चुनौतियों से निपटने के लिए समाज, सरकार और स्वास्थ्य तंत्र को मिलकर और अधिक समावेशी तथा सशक्त कदम उठाने होंगे।
अब समय आ गया है कि हम खुद से और एक-दूसरे से सवाल पूछें — “तुम ठीक हो?” — और जवाब सुनने का धैर्य रखें।
संभावित FAQ (Frequently Asked Questions)
1. भारत में इतने लोग मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं के बावजूद चुप क्यों रहते हैं?
सामाजिक कलंक (Stigma), भेदभाव, जागरूकता की कमी, पारिवारिक दबाव और इलाज की सीमित उपलब्धता के कारण लोग अपनी समस्या छुपाते हैं।
2. मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ा ‘कलंक’ क्या है?
यह वह सामाजिक, सांस्कृतिक और व्यक्तिगत सोच है, जिसमें मानसिक बीमारी को कमजोरी, पाप या शर्म की बात माना जाता है, जिससे लोग खुलकर बात नहीं कर पाते।
3. सामाजिक कलंक के कौन-कौन से प्रकार हैं?
सार्वजनिक कलंक (Societal stigma), संस्थागत कलंक (Institutional stigma), आत्म-कलंक (Self-stigma), सांस्कृतिक कलंक (Cultural stigma)।
4. क्या मानसिक बीमारी केवल कमजोर लोगों को होती है?
नहीं, मानसिक बीमारी किसी को भी हो सकती है-यह जैविक, मनोवैज्ञानिक और सामाजिक कारणों से होती है, न कि किसी की कमजोरी या आलस्य से।
5. भारत में मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं की क्या स्थिति है?
प्रति 1 लाख जनसंख्या पर केवल 0.75 मनोचिकित्सक उपलब्ध हैं, जबकि WHO के अनुसार यह संख्या कम से कम 3 होनी चाहिए। ग्रामीण क्षेत्रों में सेवाएँ और भी कम हैं।
6. इलाज के लिए लोग आगे क्यों नहीं आते?
कलंक, जानकारी की कमी, इलाज की लागत, विशेषज्ञों की कमी और सामाजिक दबाव के कारण लोग इलाज से बचते हैं।
7. क्या मानसिक बीमारी का इलाज संभव है?
हाँ, सही समय पर पहचान, परामर्श, दवा और सामाजिक सहयोग से मानसिक बीमारी का इलाज संभव है।
8. सरकार और समाज क्या कदम उठा रहे हैं?
राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम, टेली-मानस हेल्पलाइन, जागरूकता अभियान, और नीतिगत बदलाव किए जा रहे हैं, लेकिन इनकी पहुँच और प्रभाव सीमित है।
9. मैं या मेरा कोई परिचित मानसिक स्वास्थ्य समस्या से जूझ रहा है-क्या करें?
संकोच न करें, किसी मनोचिकित्सक या परामर्शदाता से संपर्क करें, परिवार और दोस्तों से बात करें, और सरकारी हेल्पलाइन या ऑनलाइन सहायता लें।
10. मानसिक स्वास्थ्य के बारे में जागरूकता कैसे बढ़ाएँ?
स्कूलों, कॉलेजों, कार्यस्थलों और समुदायों में नियमित जागरूकता अभियान, संवाद और शिक्षा कार्यक्रम चलाकर।
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